Sunday 7 April 2019

मैं सीधा लिखता हूं

तल्ख हो कर वो पूछते हैं मुझ से
क्यों लिखते हो तुम सीधा
तुम भी लिखो कुछ टेढ़ा
जैसा और भी लिखते हैं
मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
झुका हुआ कुछ उस तरफ़

तल्खी से मैं भी कह देता हूं उन से
मैं सीधा मेरी कलम सीधी
आदमी टेढ़े से हो गया सीधा
क्यों लिखूं मैं फ़िर टेढ़ा
मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
झुका हुआ कुछ उस तरफ़

गुरेज़ क्यों मैं करूं सीधा लिखने से
फ़िर फ़िर कर लिखता हूं
पर मिली है तासीर कुछ ऐसी
कि बन पड़ता है सब सीधा
न मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
न झुका हुआ कुछ उस तरफ़

औरों से नहीं, कहता हूं खुद ही से
लिखो ऐसा कि तीर सा लगे
करे कोई आह या कोई वाह
कि हां क्या खूब लिखा है
न मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
न झुका हुआ कुछ उस तरफ़

घट जाता है दाम कलम का बिकने से
अड़ जाए जो न बिकने पर
तो बढ़ जाता है दाम इसका
बांदी नहीं ये कलम किसी की
न मुड़ेगी कभी इस तरफ़
न झुकेगी कभी उस तरफ़

न साहिब से, न लेना कुछ मुसाहिब से
बिके हुए हैं निज़ाम
खरीदे हुए हैं मसनद
कलम है ये ‘बाली‘ की
न खरीद पाएगा कोई इस तरफ़
न बिकेगी कभी ये उस तरफ़


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