Sunday 8 October 2017

विधवा पुनर्विवाह को भी समाज मान्यता दे


अखबारों में जब ये खबर पढ़ी कि बिलासपुर के कुलवाड़ी गाँव के सुखदेव ने अपनी विधवा हुई बहू को बेटी मान कर उसका पुन: विवाह करवाया, तो दिल को एक अलग ही मुसर्रत हासिल हुई। यह स्त्री के प्रति संवेदना, सहानुभूति और सम्मान का एक अनूठा उदाहरण है। जिस समाज में आज भी स्त्री के पुनर्विवाह को हिकारत की निगाहों से देखा जाता है, उस समाज में इस तरह की मिसाल पेश करना अपने आप में प्रशंसनीय है। वास्तव में पुरूष प्रधान समाज में इसी तरह के उदाहरण नारी को उसका सही स्थान हासिल करने में मील का पत्थर साबित होंगे। यही वो सोच है, जो पितृसत्तात्मक समाज में नारी को उसका उचित स्थान दिला सकती है। पत्नि की म्रुत्यु के बाद जब पुरुष की शादी पर कोई उंगली नहीं उठती, तो स्त्री के विधवा होने पर उसकी शादी को भी समाज वो मान्यता क्यों नहीं देता?  
      दरअसल हमारे समाज के कायदे कानून हमेशा से पुरूष बनाता आया है। उसने अपने हिसाब से, अपनी सुविधा के अनुसार, अपने लिए ये कायदे कानून बनाए हैं। कहने को तो कहा जाता है कि नारी पुरूष का आधा अंग होती है और अंग्रेज़ी में उसे बैटर हाफ़ कहते हैं, परन्तु पुरूष की अपेक्षा नारी को ही त्याग और समर्पण करना पड़ता है। उसे ही कुंठित, अपमानित और शोषित होना पड़ता है। जब रावण का संहार कर राम चंद्र जी सीता को वापिस ले आए, तो उन्हें पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। सीता की पवित्रता का प्रमाण देने के लिए स्वर्ग से देवता भी उतर आए थे और फिर राम चंद्र जी ने सीता को वापस स्वीकारा था। बाद में सीता को गृह त्याग कर जंगल जाना पड़ा था। जब सावित्री का विवाह सत्यवान् से हो चुका था तो एक दिन नारद जी ने उससे कहा -- तुम्हारा पति सत्यवान केवल एक वर्ष ही जीएगा। यह सुनने के बाद भी सावित्री हर तरह से अपना पत्नि धर्म निभाती रही। सत्यवान की आयु क्षरण होने के बावज़ूद भी यम राज को सावित्री को उसका पति लौटाना पड़ा था और उसे चार सौ वर्ष की नवीन आयु भी प्रदान की थी। द्यूत-क्रीड़ा में जब पाँडव हार गए, तो युधिष्टर ने द्रौपदी को दाँव पर लगाया था, अपने भाइयों मेसे किसी को नहीं और द्रौपदी को चीर हरण का सामना करना पड़ा था। उस वक़्त भी भीष्म पिता माह जैसे धर्मपालक खामोश रहे थे। बड़े पुरूष के संबंध चाहे कितनी भी स्त्रियों से क्यों न हो, समाज अमूमन उस पर उंगली नहीं उठाता। मगर किसी महिला के ऐसे संबंधों की अफ़वाह मात्र से ही यह समाज उसे किन-किन निकृष्ट शब्दों से तिरस्कृत करने लग जाता है। ऐसा नारी के साथ कल भी हुआ, आज भी हो रहा रहा है और शायद आगे भी! परन्तु आखिर कब तक और क्यों?
      जब कभी किसी की पत्नि की मृत्यु होती है, तो पुरूष कुछ ही समय के बाद अपनी सुविधा और स्थिति के अनुसार दूसरी शादी कर लेता है। समाज इस बात को बुरा भी नहीं मानता और बिना किसी हील हुज्जत के मान्यता भी दे देता है। ये भी नहीं पूछा जाता कि उस पुरूष की उम्र क्या है, कितने बच्चे हैं इत्यादि, इत्यादि। उधर विधवा हुई स्त्री के लिए ऐसा करना आसान नहीं होता चाहे उसके पति की मृत्यु शादी के कुछ ही समय बाद हो जाए। कुछ विधवा महिलाएं तो ये सोच कर जीवन जी लेती हैं कि अपनी संतान का लालन पालन करना ही उनका उद्देश्य है। परन्तु उन विधवा हुई महिलाओं का जीवन तो पीड़ा से भर जाता है जिनके पास न पति का साथ रहता है न ही जीने के लिए संतान का सुख और सहारा। समाज ये नहीं सोचता कि पति अर्थात जीवन साथी की मृत्यु के बाद कैसे विधवा के लिए ज़िंदगी पहाड़ जैसी बन जाती है। पुनर्विवाह करना तो दूर इसके बारे में सोचने से पहले भी उसे कई बार सोचना पड़ता है। कई बार तो उसे ही पति की मृत्यु का कारण मान कर कफष्ट कह दिया जाता है। वह चाह कर भी पुनर्विवाह के बारे में सोच नहीं सकती क्योंकि समाज की परंपराएं दीवार बन कर खड़ी होती हैं। ये समाज, वो रिश्तेदार तरह तरह की बातें करते हैं। उसे घिसी-पिटी तर्कहीन सामाजिक मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा में बाँध लिया जाता है या वह खुद ही इनमें बंध जाती है। लोग क्या कहेंगे - ये रोग उसके जीवन के सपनों को सदा के लिए दफ़न कर देता है। कोई अगर दूसरा विवाह कर लेती है, तो भी समाज उस पर तंज़ कसने में कोई कसर नहीं छोड़ता। कुलमिला कर एक विधवा की ज़िंदगी दर्द, आह और आँसू के घेरे में कैद हो जाती है।  
        विवाह बेदी पर सात फेरे लेने के बाद केवल स्त्री ही क्यों सात जन्मों के लिए पति से बंध जाती है, पुरूष क्यों नहीं? जब पुरूष अपनी पत्नि की मृत्यु के बाद इस बंधन से मुक्त हो सकता है, तो पत्नि को भी अपने पति की मृत्यु के बाद स्वेच्छा से बंधन तोड़ने का अधिकार होना चाहिए। एक सपने के मर जाने के बाद स्त्री का जीवन क्यों मर जाता है? कुलवाड़ी गाँव के उस परिवार को नमन जिसने अपनी बहू को एक नया जीवन जीने की राह प्रशस्त की।