Tuesday 13 September 2016

बहुभाषिये बनो


    'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल' - जब जब भी हिंदी दिवस आता है या हिंदी भाषा का ज़िक्र होता है, तो इस भाषा के चिंतक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध कविता मातृभाषा के प्रति' से ली गयी इस पंक्ति का जिक्र अवश्य करते हैं। ऐसा करना उचित भी है और स्वभाविक भी क्योंकि ये वो भाषा है जिस में हमने सबसे पहले अपने ज़ज़बातों व एहसासों को शब्दों में अभिव्यक्त करना आरंभ किया। चाहे हमारे संविधान में बहुत सी भाषाओं को राष्ट्रीय मान्यता दी गयी है, परन्तु हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया है। टूटी-फ़ूटी ही सही, हिंदी देश के लगभग हर प्रांत और खंड में बोली या समझी जाती है। इस तरह यह देश को एक सूत्र में भी बांधती है।
    परन्तु, हिंदी भाषा को तरज़ीह देने के मायने ये भी नहीं है कि अन्य भाषाओं को हीन दृष्टि से देखा जाए। मुझे भाषा के उन पंडितों से सख्त गिला है, जो हिंदी को हिंदुओं से, उर्दू को मुसलमानों से, अंग्रेज़ी को गोरों से, पंजाबी को पगड़ी से जोड़ने की कोशिश करते हैं। कई हिंदी के हिमायती तो कह-कह कर नहीं थकते कि अंग्रेज़ी भाषा से गुलामी की बू आती है, लेकिन ख़ुद 'मे आई कम इन', 'बाय-बाय', और 'थैंक यू' जैसे अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने में अपनी बड़ाई मानते हैं। वास्तव में भाषाएं तो एक दूसरे की बहनें होती हैं। वे कभी नहीं टकराती। टकराती तो भाषा के प्रति हमरी मानसिकता है। अगर हिंदी हमारी मां है, तो अन्य भाषाएं हमारी मौसियां हैं। अगर मां के पास हमें अभिव्यक्ति का रास्ता नहीं मिलता, तो मौसियों की शरण में हमें रास्ता मिलता है।
    अगर हम अपनी-अपनी भाषाओं के दायरे खींच ले, तो न तो भाषाओं का आदान-प्रदान होगा, न उनका विकास होगा और न ही हम एक दूसरे की संस्कृति से पूरी तरह वाकिफ़ हो पाएंगे। अगर भाषाएं एक दूसरे से न मिलती, तो श्रीमद भगवद गीता को केवल हिंदु पढ़ पाते, कुरान मुसलमान ही पढ़ते, आदिग्रन्थ केवल सिक्ख जानता और बाइबल केवल ईसाईयों तक सीमित रहती, परन्तु इन पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध होने से विश्व के लोग इन्हें पढ़ पाते हैं।
    देश की आज़ादी में भी कई भाषाओं का योगदान रहा है। राष्ट्रगीत ’वंदे मातरम’ और राष्ट्रगान ’जन गण मन’ हमें बांग्ला ने दिए और ’सारे जहां से अच्छा...’ इकबाल की उर्दू भाषा में लिखी गई देश प्रेम की ग़ज़ल है। अगर ’दिल्ली चलो’ नारा हिंदी में दिया गया, तो क्रांति का प्रतीक ’इंक़िलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा उर्दू ज़बान का है। टैगोर की ’गीतांजली’ को ब्यापक सम्मान अंग्रेज़ी में अनुवादित होने के उपरांत मिला। चाहे राम प्रसाद बिस्मल ने कहा ’लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी’, फ़िर भी उनका उर्दू से बहुत लगाव था। उन्होंने बिस्मल को अपना तख़ल्लुस बनाया और ’सरफ़रोशी की तमन्न्ना आज हमारे दिल में है...’ जैसे उर्दू के तराने लिखे। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और दुष्यंत कुमार की गज़लों में हिंदी व उर्दू जिस तरह से हमामेज़ हुई हैं, वह साहित्य को एक ख़ूबसूरत आयाम देता है। जहां हिंदी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने देश की आज़ादी में अहम भूमिका निभाई, वहीं आधुनिक भारत के जनक राजाराम मोहन राय ने अंग्रेज़ी का इस्तमाल भारत पुनर्जागरण के लिए किया। उन्होंने इस भाषा को अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच सेतु स्थापित करने के लिए भी किया। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पंडित नेहरू. आर के नारायनन, राजा राव, किरन देसाई, अरुनधति रॉय जैसे भारतीय लेखकों ने अंग्रेज़ी भाषा का इस्तमाल करके ऐसी साहित्यिक रचनाएं  लिखी जिन से विश्व में देश का नाम रोशन हुआ है।
      हिंदी भाषा के कई ख़ैरख्वाह अक्सर हो-हल्ला मचाते हैं कि हिंदी खतरे में है, जबकि वास्तव में यह केवल बेवजह का डर है। आज हिंदी चीनी भाषा मैंडरिन के बाद विश्व में इस्तमाल की जाने वाली सबसे बड़ी ज़बान है। वास्तव में हिंदी भाषा में अपने को बनाए रखने की सिफ़्त मौज़ूद है। आज यह गुगल से होते हुई कई देशों में बोली, लिखी व पढ़ी जाते है।
    किसी भी भाषा के विस्तार और विकास के लिए ज़रूरी है, यह दूसरी भाषाओं के प्रति उदार रहे। माना जा सकता है कि अंग्रेज़ी इस नज़रिए से अव्वल आती है क्योंकि इस में दूसरी भाषा के अल्फ़ाज़ को अपने में समाहित करने की बहुत क्षमता है। जैसे हिंदी के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल दूसरी ज़बान में अल्फ़ाज नहीं मिलते, ठीक वैसे ही दूसरी ज़बान के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल हिंदी में अल्फ़ाज नहीं। एक-दूसरे की ज़बान के अल्फ़ाज़ को हमामेज़ करने ही सलाहियत ही ज़बान को विस्तार प्रदान करती है।
    हिंदी को मज़बूत और विकसित होने के लिए इसे आम लोगों के और निकट लाना होगा। भले ही कुछ साहित्य के पारखियों का मानना है कि कलिष्ट शब्दों के इस्तमाल से भाषा मज़बूत होती है और इसकी शान बढ़ती है, परन्तु ऐसा असलियत में नहीं होता। कठिन व कलिष्ट भाषा का इस्तमाल साहित्यिक दृष्टि से तो उचित हो भी सकता है, परन्तु इस तरह यह जनमानस की भाषा नहीं बन सकती। जो भाषा जनमानस की नहीं बन सकती, वह कभी विकसित नहीं हो सकती।
    भाषा किसी की बांदी नहीं होती। इसे किसी खूंटे से नहीं बांधा जाना चाहिए अन्यथा यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है जिसे ज़ीने के लिए दाना तो मिलता है, पर उसकी ऊड़ान कुंद रह जाती है। हिंदी भाषा की सादगी, उर्दू की लज़्ज़त, और अंग्रेज़ी की ख़नक मिल जाए तो भाषा का ज़ायका वैसा होगा जैसा अपने ख़ेत की राजमाह की दाल का जिसमें टमाटर का तड़का लगा हो।

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