Wednesday 7 September 2016

बी ए में खराब परिणाम


हाल ही में हिमाचल विश्वविद्यालय का बी ए पहले समैस्टर का परिणाम आया। परिणाम 2% देख कर थोड़ा ठिठका, थोड़ा सहमा क्योंकि विश्वास नहीं हो रहा था। सोचा कहीं छापने में गलती हो गयी होगी। दूसरे समाचर पत्र खंगाले, पर परिणाम 2% सही ही छपा था। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसा परिणाम भी आ सकता है। आश्चर्य हुआ क्योंकि ऐसा परिणाम तो अक्सर चार्टड अकॉउंटैंट की परीक्षाओं में देखने को मिलता है। इस परीक्षा में बहुत सारे 10+2 के टॉपर्ज़ भी लुढ़क गए। अब जब विश्वविद्यालय स्पष्ट कर चुका है कि परिणाम बिल्कुल दुरुस्त है, तो छात्रों का मन विषादित होना स्वभाविक है।
      इतना ख़राब परिणाम है, तो सवाल तो उठेंगे ही। आखिर ऐसा क्या हो गया कि 10+2 में टॉप करने के बावजूद भी छात्र बी ए में इस कदर फ़िसड्डी साबित हो गए। वास्तव में उच्च शिक्षा में सफ़लता इस बात पर निर्भर करती है कि विद्यार्थि निचले स्तर से कितना कुछ सीख कर व पढ़-लिख कर अए हैं। जैसे किसी ईमारत की बुलंदी और मज़बूती इस बात पर निर्भर करती है कि इसकी नींव की ईंट कितनी पायदारी और करीने से गढ़ी गयी है, ठीक वैसे ही किसी राष्ट्र की उन्नति, गरिमा व मुस्तक्बिल इस बात पर निर्भर करते हैं कि उस राष्ट्र की तालिमी बुनियाद कितनी पुख़्ता है। रूसा के तहत आए इस बेहद निराशाजनक परिणाम के झटके ने तालीम की बुनियाद की मज़बूती और पुख़्तेपन की पॊल खोल कर रख दी है।
      ’पप्पु पास हो गया’ वाली निति ने कैसे-कैसे पप्पु पैदा कर दिए हैं, ये किसी से छुपा नहीं है। ये बात तो विभिन्न सर्वेक्षणों में भी बार-बार सामने आती रही है कि पांचवी पास पप्पु अपना नाम तक नहीं लिख सकते; आठवी पास सामान्य गुणा, भाग नहीं कर पा रहा है। नवीं कक्षा में पहुंचे पप्पुओं की जो हालत होती है, उस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन पप्पुओं को पढ़ाते-सिखाते गुरुजी पर क्या गुज़रती होगी। वो इस पशोपेश में रहते हैं कि वर्णमाला, जोड़-घटाव, गुणा-भाग सिखाया जाए, तो पाठयक्रम का क्या करें; पाठयक्रम पूरा करें तो बच्चों की समझ में कैसे आए। यहां तक कि 10+1 के बहुत से विद्यार्थियों की हालत ये है कि वे एक हिंदी का वाक्य तक शुद्ध लिखने का साहस नहीं जुटा पाते। यह हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी का आलम है, अंग्रेज़ी के टैंसिज़ का इसतमाल तो बूढ़ी का ब्याह समझो। इस पर तुर्रा ये कि कई विद्यालय ऐसे भी हैं जिन्हें आदर्श धोषित किया गया है, परन्तु यहां शिक्षकों के कई अहम पद खाली पड़े हैं। ऊपर से खिचड़ी का पचड़ा, उसका लेखा जोखा, कभी गैस सिलैंडर नहीं मिलता, कभी दाल खत्म, तो कभी चावल की आपूर्ति नहीं। उधर विभाग को तरह-तरह की जानकारियां व आंकड़े भी अध्यापकों को ही तैयार कर ऑनलाइन भेजने पड़ते हैं। फ़िर परीक्षा परीणाम ख़राब आने का डर। अगर चुनाव आ गए तो इस एक काम के लिए सारी पढ़ाई ठप्प। अध्यापक क्या-क्या करे? आखिर इन्सान है, कोई निंजा नहीं। गुरुजी की स्थिति उस सौतेले बच्चे की तरह है जो अगर हाथ धोता है, तो मां कहती है कि पानी बर्बाद कर रहा है, अगर नहीं धोता है, तो उसे गंदा बच्चा कह कर दुत्कार दिया जाता है। किसी ने ठीक कहा है - परेशान किया हुआ अध्यापक कभी बेहतर अध्यापन नहीं कर सकता।
      सवाल ये भी उठता है कि आखिर 10+2 कक्षा में ये छात्र इतने अछे अंक कैसे ले पाए। बोर्ड द्वारा आयोजित दसवी और बारहवी कक्षा की परीक्षा की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठता है। बोर्ड भले ही बड़े-बड़े दावे करता हो, परन्तु वास्तव में इन परीक्षाओं के दौरान जो आलम होता है, उस से यही ज़ाहिर होता है कि जल्द ही हम बिहार के बराबर होने वाले हैं। कुछ अच्छा परिणाम देने के दबाव में, तो कुछ अपनी स्थानीय संबधों के चलते नकल के कार्य में हाथ बंटाते हुए देखे जा सकते हैं। इसका परिणाम ये होता है कि बोर्ड की परिणाम प्रतिशतता तो बेहतरीन हो रही है, परन्तु शिक्षा का हुलिया बद से बदतर होता जा रहा है और पप्पुओं की फ़ौज़ बढती जा रही है। परिणाम की प्रतिशतता अलग बात है और शिक्षा का स्तर ऊंचा होना अलग बात।
      ये देखना भी लाज़िमी है कि क्या हमारी उच्च शिक्षा व बुनियादी शिक्षा के ढांचे में सामंजस्य भी है या नहीं। मसलन आठवी तक तो पास प्रतिशतता का महत्व खत्म है, उसके बाद जिसने 33% अंक हासिल करने के लिए इतने पापड़ बेले हों, उस के लिए 45% का आंकड़ा मुश्किल तो ज़रूर है।
      आंग्रेज़ी में कहावत है - असफ़लता सफ़लता के स्तंभ होत हैं, परन्तु ’पप्पु पास हो गया’ की नीति के चलते बच्चा न असफ़लता और सफ़लता में फ़र्क जान पा रहा है और न ही गलतियों से सबक ले पा रहा है। बाल बुद्धि समझती है कि गलत हो या ठीक, उसे तो अगली कक्षा में जाना ही है।
      इसलिए आज आवश्यकता है कि शिक्षा के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन किया जाए। बच्चों पर इतने सारे प्रयोग उचित नहीं। प्रयोगों के बावजूद अगर लेखा-जोखा शून्य हो, तो शिक्षकों, अभिभावकों और छात्रों के विरोधी स्वर मुखर होना स्व्भाविक है। परन्तु लगता है हुक्कमरान कहीं और व्यस्त है और शिक्षा सियासत के पेचोख़म में उलझ कर रह गयी है। अगर अब भी न संभले तो हम द्वितीय और तृतीय श्रेणी का राष्ट्र तैयार करने की ओर अग्रसर हैं। यही इल्तजा कर सकता हूं:
ठोकरें खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का नसीब,
राह के पत्थर तो अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं।


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