Thursday 18 October 2018

’मी टू’ को पुरुष भी समर्थन दे


     जब सत्ता में बड़े औधे पर बैठा कोई मंत्री, मीडिया जगत का कोई बड़ा पत्रकार, बॉलिवुड जगत का कोई निदेशक या मशहूर कलाकार दुनिया में ये कहते फ़िरे कि मानव विकास के लिये महिला सशक्तिकरण आवश्यक है और उधर उन पर एक साथ कई महिलाएं यौन शोषण का आरोप लगाए तो सवाल उठता है कि ये बड़े अदमी वास्तव में नारी सम्मान व सशक्तिकरण का कितना ख्याल रखते होंगे। आप ये स्वयं तय कर सकते हैं कि ये बड़े आदमी कितने बड़े हैं और कितने छोटे हैं। जब ऐसे बड़े लोग अपने वकीलों की फौज ले कर किसी के खिलाफ़ मानहानि का दावा करते हैं, तो बड़े से बड़े धुरंधर का पसीना छूट जाना स्वाभाविक हैं। और ये बड़े लोग किसी एक महिला के खिलाफ़ खड़े हो जाए, तो समझा जा सकता है कि उस महिला की क्या हालत हो सकती है। दरअसल ये हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिला के प्रति पुरूष के दोहरे मापदंड, वर्चस्व व खोखली ठसक का मंज़रनामा है।
      परन्तु वह डरी नहीं है और उसने लड़ने का ऐलान कर दिया है। उसने जवाब दिया है: "मैं अपने ख़िलाफ़ मानहानि के आरोपों पर लड़ने के लिए तैयार हूं। सच और सिर्फ सच ही मेरा बचाव है।" वह अकेली प्रिया रमानी का जवाब नहीं है, बल्कि उस जैसी कई महिलाओं का जवाब है जिसने मर्द की ज़यादती के विरुद्ध आवाज़ उठाने का फ़ैसला कर लिया है। एक तरफ़ वकीलों की फौज है, पितृसत्तात्मक समाज की संकीर्ण सोच है और दूसरी तरफ प्रगतिशील सोच रखने वाली नारी जिसने खामोशी और घुटन के दायरे से बाहर आने का बीड़ा उठा लिया है। हम सवाल करने पर मज़बूर है कि अबला कौन है – वह नारी या उसको को रौंदने की चेष्ठा करने वाले पुरुष प्रधान समाज की फौज व इसके संकीर्ण दायरे? अब तो प्रिया रमानी, गजाला वहाब, सुपर्ना शर्मा सहित उन महिलाओं की कतार बहुत लंबी हौ गई है जिन्होंने एक नहीं बल्कि कई कई-बड़े लोगों पर यौन उत्पीड़न व प्रीडेटरी बिहेवियर का आरोप लगाया है। 20 महिलाओं ने तो अदालत में न्यायधीश के सामने ग्रैट संपादक के यौन शोषण से जुड़े मानहानि के मामले में गवाही देने की गुहार भी लगाई है। इसी बीच बॉलिवुड व मीडिया जगत में ’मी टू’ के तहत यौन शोषण को ले कर जिस तरह से महिलाएं आगे आ रहीं हैं, उससे इन हल्कों में खलबली तो मची ही है और साथ इन चकाचौंध वाले क्षेत्रों की पर्दे के पीछे छुपी घिनौनी सूरत सामने आ रही है।
      वास्तव में प्रिया रमानी व अन्य महिलाओं का जवाब उन सब मर्दों के लिए चेतावनी है जो महिला को सिर्फ़ वासना की भूख मिटाने का साधन समझते है, उसके अंगों को हसरत भरी निगाहों से देखते हैं, उन्हें छूने का प्रयास करते है, कार्यस्थल पर अपने ऊंचे औधे का दुरुपयोग करते हैं और मौका पा कर उन्हें रोंद डालते हैं। अपने-अपने प्रसंगों व संदर्भों के साथ आप-बीती की व्याख्या करने वाली इतनी सारी महिलाओं का भला क्या राजनीतिक उद्देश्य हो सकता है? जिस तरह से आजकल एक के बाद एक महिलाएं 'मी टू' के माध्यम से उनके साथ हुए यौन दुराचार के विरुद्ध आवाज उठा रही हैं, वो खबरदार करता है कि अब नारी ज़्यादा देर तक मर्द की मनमर्ज़ी व शोषण के विरुद्ध चुप नहीं रहेगी। कार्यालयों में अब उनके बॉस उनका लैंगिक शोषण नहीं कर सकते। अगर ऐसा करेंगे तो कुर्सी से हाथ धोना पड़ सकता है क्योंकि मंत्री जी की जा सकती है, तो ये बॉस क्या चीज़ हैं। मान लेना चाहिए कि प्रोग्रैसिव सोच रखने वाली महिलाओं ने अपनी आवाज़ बुलंद करने का निश्चय कर लिया है, फ़िर चाहे किसी नेता या ग्रैट संपादक का हरम हो, अपनी कलम और खुफिया कैमरे के इस्तेमाल से तहलका मचाने वाला कोई तेजपाल हो, कोई फ़िलमी दुनिया का संस्कारी नाथ हो, ताबड़तोड़ अंग्रेज़ी बोलने की ठसक रखने वाला कोई वीआइपी हो, हाफ़ फ़्रैंड या फ़ुल गर्लफ़्रैंड का कोई लेखक हो, बॉलीवुड का कोई नायक-खलनायक हो, डारैक्टर-प्रॉड्युसर हो, किसी अखबार या न्यूज़ चैनल का कोई पत्रकार हो, पी.एच.डी करवाने वाला कोई प्रोफेसर हो, इंटर्नशिप करवाने वाला कोई नामी वकील हो। मतलब ये है कि कोई भी हो, नारी अब चुप नहीं रहेगी क्योंकि वो अब ’मी टू’ के ज़माने में रह रही है।
      कई बहस करने वाले सवालिया तर्क पेश कर रहे हैं कि पहले क्यों नहीं बोला? जब तब नहीं बोला, तो अब ही क्यों बोला? हां, ये सवाल हो सकते हैं, परन्तु ये सवाल ऐसे नहीं कि लाजवाब कर दे। इनके जवाब हैं। पहले कोई ऐसा मंच नहीं था जहां महिलाएं खुले तौर पर अपने साथ हुए दुराचार की बात कर सकती। आज वक्त बदला है। आज महिलाओं के अधिकारो की रक्षा के लिए संगठन हैं, संस्थाएं हैं, सोशल मीडिया है, ट्विटर है, फ़ेसबुक है, व्टसऐप हैं और अब ’मी टू’ है जहां वे अपनी बात रख पा रही हैं। तब वे आर्थिक रूप से कमज़ोर थी और अब आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हैं।  
दरअसल ये महिलाएं कहना चाह रही है कि वो दिन लद गए जब जुए में हार दी जाने वाली द्रौपदी की तरह उसे चीरहरण के लिए वाध्य किया जाता रहा, जब पितृसत्तात्मक समाज के कहने पर सीता की तरह उनसे पाकदामन होने के प्रमाण मांगे जाते रहे। अगर पहले वो जो नहीं कह पाई, आज कह रही है, तो संकेत नारी उन्नति के हैं। यह तो एक उन्नत व आज़ाद नारी समाज का प्रतीक है। मैं ये तो नहीं कह रहा हूं कि ’मी टू’ अभियान के तहत सामने आ रहे मामले यथावत सत्य है, परंतु ये भी कैसे मान लिया जाए कि वे सब असत्य पर आधारित हैं। क्या कितना सच है, क्या कितना झूठ है, ये तो जांच व न्यायालय के फ़ैसलों पर निर्भर करेगा। परंतु धुंवा उठा है, तो कहीं आग तो लगी है।
      बड़ी बात है कि महिलाओं ने वो बोलने की हिम्मत तो की है, जो वह कह नहीं पाती थी। कम से कम उसे बोलने तो दीजिए। ये ज़रूरी नहीं कि नारी केवल श्रद्धा की मूर्त बनी रहे। उसे ताड़ित व प्रताड़ित करना मर्द का अधिकार नहीं बल्कि अमानवीय अपराध है। जिसके आंचल में दूध है, उसकी आंखों में आंसू क्यों हो? होना तो ये चाहिए की पुरूष भी 'मी टू' जैसे नारी मंचों का समर्थन करे। उसे 'मी टू' को सशक्त बनाने के लिए अभियान चलाना चाहिए जिसके तहत पुरुष भी महिलाओं का यौन शोषण करने वाले पुरुषों को सामने लाए। तब पुरुष भी ऐसे प्रिडेटर को कह सकेगा - तुम भी ऐसे अर्थात 'यू टू' ग्रैट अकबर!'


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