Thursday 18 October 2018

पगडंडियां जीवन की

(1)
रोज़ सवेरे घर से निकलना और पहाडी से उतरना
फिर चढना और सांझ ढलते ही घर को लौट आना
पहाडी को चीरती इन संकरी पगडंडियों पर चलना
बक खाती पगडंडियों पर टेढ़े-मेढ़े कर पांव टिकाना
वो टिक टिक कर चलना वो झुक झुक कर चलना
पांव फिसलना और कोई डाली थाम कर संभलना
ठोकर खा कर गिर पड़ना और गिर कर उठ जाना
झुलसती धूप और कभी बारिष में तरबतर हो जाना
इधर कल कल करती नदिया उधर झरने का गाना
तेज़ सर्द हवा के झौंके और बालों का बिखर जाना
पसीने की बूंदों का टपक कर चेहरे पर ठहर जाना
थक कर हांफते हुए उस पुराने पत्थर पर बैठ जाना
दशकों पहले इस पत्थर के लिए लड़ना-झगड़ना
जीत कर टांग पर टांग धर साहब बन बैठ जाना
(2)
यही पहाड़ी यही पगडंडियां यही पत्थर
इन्हीं पगडंडियों से गुजरा है
बचपन का वो ज़माना
पर तब मस्ती थी, एक खेल था
इन पगडंडियों से गुजरना
मगर अब बोझ हैं, फिक्र है, डर है
इन पगडंडियों से गुजरना
तब नहीं रुकते थे मचलते कदम
इन पगडंडियों पर
मगर अब डगमग करते है पग
इन पगडंडियों पर
तब नहीं था थकान का कोई एहसास
इन पगडंडियों पर
मगर अब हांफती हैं थकान भरी सांसे
इन पगडंडियों पर
(3)
तंग पगडंडियों से खुली सड़क पर आना
खुली सड़क से पगडंडियों में लौट जाना
बस ऐसा ही है ये रोज का आना जाना
शिखर से शून्य, शून्य से शिखर पर आना
(4)
गीत गाती, जीने की राह दिखाती है
ये पगडंडियां
धूप छांव की घटती-बढ़ती चादर है
ये पगडंडियों
जो नहीं किताबों में वही सबक है
ये पगडंडियों
(5)
चल, तू चल, ऐ राही !
तुमको चलना है अविरत इन्हीं पगडंडियों पर
नदिया जैसे चले कोई कल कल
धारा जैसे चले कोई छल छल
ये जीवन है चल चला चल
-----जगदीश बाली

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