बायोमीट्रिक मशीन
लगने के शुरुआती दौर की खलबली व तिलमिलाहट अभी ठंडी भी नहीं हुई है और इसकी टीस व
कसमसाहट से बहुत सारे शिक्षक अभी उबरने की कोशिश कर ही रहे हैं, कि सरकार ने शिक्षा व्यस्था को चाक चौबंध रखने के लिए एक और कील ठोकने का
मन बना लिया है। इन्स्पेक्शन कैडर सैल के गठन के लिए बाकायदा मंजूरी मिल गयी है,
वो भी पूरे 94 लोगों की फ़ौज़ के साथ। लगता है सरकार की समझ में अब जा
कर धीरे-धीरे ये उतरना शुरु हो गया है कि आर एम एस ए और एस एस ए के भयावह व
चिंताजनक नतीज़ों के पीछे सशक्त मिगरानी व्यवस्था का न होना एक बहुत बड़ा कारण रहा
है। इन परियोजनाओं को कार्यान्वित करवाने के लिए कभी कागज़ी हवाई ज़हाजों का सहारा
लिया गया तो कभी कागज़ की कश्तियों का, परन्तु कागज़ी ज़हाज़ व
कश्तियां थोड़ी देर के लिए तसल्ली और खुशी तो ज़रूर देते हैं, पर
इन मे बैठकर न उड़ा जा सकता है न समुद्र की सैर की जा सकती है। इस बार लगता है,
शायद, साहब लोग संज़ीदा हैं क्योंकि:
ठोकरें खाकर भी ना संभले तो मुसाफिर का नसीब,
राह के पत्थर तो अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं।
निरिक्षण सैल इसलिए भी प्रासंगिक है, क्योंकि आज शायद निरिक्षण आज शायद ही किसी आला अफ़सर को
स्कूलों के निरिक्षण की फ़ुरसत मिलती है क्यॊकि विभाग ही बहुत विस्तृत है। कभी अगर
इस काम के लिए वक्त निकाल भी लेते हैं, तो सिर्फ़ तभी अगर कोई
शिकायत आलाकमान तक पहुंचती है। शिक्षा की चिंता शिक्षक, आला
अफ़सर, सियासतदां सभी जताते हैं, पर
हुक्म, आशा और चाहत से आगे बात नहीं बढ रही! पूरे वर्ष ये
जानने की ज़हमत नहीं की जाती कि अमूक विद्यालय में पठन-पाठन का कार्य सही मायनों
में चल रहा है या नहीं। वर्षभर कुंभकर्णीय नींद मे सोए रहना, परिणाम आने पर चौकन्ने हो जाना और तुरन्त अध्यापकों पर तबादले की तलवार
लटका देना या वेतन वृद्धि रोकने का डर दिखाना न न्यायसंगत है न तर्कसंगत। अगर ये
हल है तो कभी समस्या समाप्त नहीं होगी, बल्कि और विकट रूप
धारण करेगी। तबादले का मतलब है समस्या एक जगह से दूसरी जगह तबदील हो रही है। 100%
परीक्षा परिणाम के ठप्पे के चक्कर में देश का कोना-कोना बिहार ज़रूर बन जाएगा। एक
समस्या के शॉटकट हल से दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर लेना कोई अक्लमंदी नहीं क्योंकि
रोशनी की खातिर किसी का घर नहीं जलाया जाता।
शैक्षणिक माहौल
को दुरुस्त करना हालांकि आसान सफ़र नहीं जान पड़ता, फ़िर भी इन्स्पेक्शन सैल की स्थापना सरकार की नेक मंशा की ओर ईशारा ज़रूर कर
रही है। यह सैल अपने मंतब्य व गंतब्य को साध पाएगा या नहीं, ये
अभी कहा नहीं जा सकता क्योंकि एस एस ए व आर एम एस ए की शुरुआत भी काफ़ी जोशोख़रोश के
साथ शुरु हुई थी औए आलम आज क्या है, जिक्र करने की ज़रूरत
नहीं। नए सैल के अहम पदों पर वही लोग विराज़मान होंगे जो प्रोन्नति की फ़ेहरिस्त में
सबसे आगे हैं - मतलब नई गाड़ी में वही पुराने चालक और परिचालक होंगे, और जिन मुसाफ़िरों को वो हांकेगे, वे भी पुराने। ऐसे
में वे हिचकोले खाती हुई इस ब्यवस्था से बाहर आ कर इसे ढर्रे पर ला पाते हैं या नही,
कहा नहीं जा सकता मगर, पर उम्मीद ज़रूर की जा
सकती है।
निरीक्षण सैल की
स्थापना व बायोमीट्रिक मशीनों से हाज़िरी - ये दोनो कदम इस बात के द्योतक है कि
सरकार और शिक्षा के अलम्बरदार मन में ये बिठा चुके हैं कि गुरुजी अपने कर्तब्य के
प्रति कोताही बरत रहे हैं। पर क्या सभी ऐसे हैं? ऐसा हरगिज़ नहीं माना जा सकता। अगर सरकार और साहब लोग ये मान ही बैठे हैं,
तो ये गौरतलब होगा कि निरीक्षण सैल ऐसे गुरुओं की निशानदेही कर पाता
है या नहीं। अगर यह ऐसा नहीं कर पाता तो इसकी भी जवाबदेही तय हो क्योंकि आखिर 94
लोगों की फ़ौज का कुछ तो औचित्य हो। जांच अधिकारी साहब, रपट
जरा ध्यान से बनाइगा क्योंकि गुरुजनों को इतना भी कमज़ोर न आंकिएगा और कहीं गुरुओं
की निगहबानी के चक्कर में सैल जांच रपट और मुकद्दमों की फ़ाइलों में उलझ कर न रह
जाए। ऐसा न हो कि शिकार करने जो निकले थे, खुद शिकार हो जाए।
चलो ये भी मान
लेते हैं कि इन्स्पेक्शन सैल गुरुओं को कसने में कामयाब हो जाएगा, पर इसके अलावा भी शिक्षा ब्यवस्था में कई झमेले हैं। ’पप्पु
पास हो गया’ वाली नीति, जो शिक्षा और शिक्षक के लिए सरदर्द
बनी हुई है, से कब मुक्ति मिलेगी? अमेरिकी
सोच रखने वालों द्वारा दिए गए इस मर्ज़ की दवा मालूम नहीं कब मिलेगी। केंद्र में
शिक्षा मंत्री आते हैं, ’पप्पु पास हो गया’ वाली नीति को
कोसते हैं और जुमले फ़ेंक कर निकल जाते हैं। ये कह कर कि सुझाव मांगे रहे हैं,
जुमलों से ही तसल्ली कर ली जाती है। हालांकि बहुत से राज्यों ने
खुलकर इस नीति का विरोध किया है, पर बात कहां अड़ी है,
खुदा जाने। लंबे समय तक शिक्षकों के पद खाली रहने की रिवायत से भी
क्या कभी निज़ात मिलेगी? अध्यापक को कागज़ों की मग्ज़खपाई से कब
छुट्टी मिलेगी? जनगणना, पशुगणना,
चुनाव- कब वह इन सब से छूट कर गुरुजी सिर्फ़ पप्पुओं की सुध ले पाएगा?
ज़्यादा देर ठीक है। कहीं देर न हो जाए:
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
इतने सारे झमेलॊं के
चलते, तालीम के बिगड़े हुए हुलिये को सुधारने के लिए भले ही
इन्स्पेक्शन सैल नकाफ़ी है, फ़िर भी यह एक बड़ी पहल है। इसके
पीछे सोच और मंशा सकारात्मक है, पर पहला-पहला ज़ाम है,
साहब, ज़रा संभल कर।
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