Friday 14 June 2013

मैं सीधा लिखता हूं

मुंह मोड मेरी कविता से तलख हो कहते
हैं वो हम से
भला तुम भी कोई कवि हुए
कवि तो तुम्हें तब जानें जो तुम लिखो कुछ टेढा

जुर्रत हमने भी बहुत की है कि हम भी लिखें
कुछ टेढा आडा तिरछा
कभी खुद हो लिए टेढे कभी कलम टेढी कर लिखा
जमी पर बात नहीं कि टेढा लिखा
लिखा बहुत कुछ मुडा सा, कुछ तिरछा आडा टेढा सा
कहा फ़िर भी, फ़िर भी लिखा खूब सीधा-सा

क्यों टेढा लिखूं मैं ?
मैं सीधा, कलम सीधी, टेढे से आदमी भी हो गया सीधा
सवाल फ़िर भी वही कि लिखते हो क्यों सीधा

रटन बहुत हुई अब टेढा-टेढा लिख हार जाने की
और हार हार कर टेढा लिखने की
मान अब चुका लिखूं चाहे जैसा उल्टा-पुल्टा तिरछा-आडा
लगे है वो सीधा ही
तासीर ही जो दे डाली खुदा ने सीधी मुझे एक दम सपाट
कि लिखूं चाहे टेढा लगे है सीधा-सपाट

सीधा लिखने वालो !
माना लगता है टेढा, मुडा हुआ लिखने में बहुत दम
पर तुम जानो क्या
निकल जाता है सीधा लिखने में हमारा कितना दम  

जो चलो सीधा तो चलना हुआ
कतरा कर, मोड कर खुद को चलना भी क्या चलना हुआ
न मिले हाथ, न टकराना हुआ
देखकर तिरछा, मुड मुड कर भला क्या देखना हुआ
न निगाहें मिली न सामना हुआ
सीधा जो चलते, मिलते हाथ, निगाहें मिलती या टकरा जाते
चूर वो हो जाते या खुद चूर हो जाते

औरों की तो और जानें अपनी मगर हम कहते हैं
लिखना तो है कि लिखो सीधा पैना-तीखा
चुभे ऐसे और लगे ऐसा कि लगे कुछ कहा, कुछ लिखा
करे कोई आह या कोई वाह कि क्या लिखा
लगे ऐसा जो लिखा कि पीर हो तीर सी या मरहम लगे वो दवा सी
कुछ न लगे तो भला क्या लगे वो कविता सी

कुछ तो, कवि, लोग कहेंगे लोगों का काम है कहते ही रहना
ठान तू बस कि लिखता चलूं मैं सीधा-पैना



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