Sunday 24 September 2017

sसिमटती दुनिया बढ़ते भाषाओं के दायरे


भाषा वही जो दिलों में उतर जाए। जो भाषा दिल में नहीं उतरती, वो जनमानस की भाषा नहीं बन सकती और जो भाषा जनमानस की नहीं बन सकती, वो कभी विकसित नहीं हो सकती। यह महत्वपूर्ण है कि किसे कौनसी बात किस भाषा में समझ आती है। नेल्सन मंडेला ने कहा भी है: "अगर आप एक आदमी से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है, तो वह उसके दिमाग तक जाती है। वहीं अगर आप उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल में उतरती है।" इस बात में कोई संदेह नहीं कि निज भाषा में ही हम सबसे पहले अपने ज़ज़बातों व अहसासों को शब्दों का रूप देते हैं, परन्तु किसी की निज भाषा क्या है, यह एक व्यक्तिगत प्रश्न है।  
भले ही महनीय कवि भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने अपनी प्रसिद्ध कविता मातृभाषा के प्रति' में कहा है - निज भाषा को उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, परन्तु उनके इस कथन को आज की बदलती और सिमटती दुनियाँ के परिपेक्ष में देखने की आवश्यकता है क्योंकि भारतेन्दु युग से आज के युग तक आते आते काफ़ी कुछ बदल गया है। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि उनके द्वारा कही गयी बात की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है। मैं सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ कि उनके इस कथन का मायने आज वो नहीं है जो तब था, बल्कि इसका दायरा बढ़ा है। उनके कथन का आज ये आशय नहीं निकाला जा सकता कि सब की निज भाषा एक ही हो। मेरी निज भाषा हिंदी हो सकती है और आपकी कोई और तथा किसी तीसरे की कोई और। हाँ, इतना ज़रूर है कि हर किसी को अपनी भाषा का प्रचार करने का हक है और उसे ऐसा करना भी चाहिए।
हमारा देश के संविधान में बहुत सी भाषाओं को मान्यता दी गयी है, तो किसी एक भाषा को निज भाषा कैसे करार दिया जा सकता है। हिंदी वाले हिंदी का, अंग्रेज़ी वाले अंग्रेज़ी का, संस्कृत वाले संस्कृत का और कोई अन्य भाषा वाले अपनी अपनी भाषाओं का प्रचार करें। इसमें कोई समस्या नहीं। किसी जगह की की सभ्यता और संस्कृति को जानने के लिए आवश्यक है हम उस जगह की भाषा को समझे क्योंकि भाषा अपने साथ संस्कृति भी लेकर आती है। फ़िर आज तो हम गुगल, फ़ेसबुक और व्ट्सएप के प्रचार और संप्रेषण के उस युग में रह रहे हैं जहाँ हर देश पड़ोसी ही लगता है। रोज़गार के लिए या फ़िर अन्य किसी प्रयोजन से लोग एक-दूसरे देश आ जा रहे हैं। तो हम एक ही भाषा से चिपक पंगु बन कर तो नहीं बैठ सकते न। ऐसे में  बहुभाषिया होना एक काबिलेतारीफ़ सलाहियत है। विचारक योहान वुल्फगांग फ़ान गेटे, जिन्होंने कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् का जर्मन भाषा में अनुवाद किया, ने कहा है: "जिसे किसी विदेशी भाषा का कोई ज्ञान नहीं, उसे अपनी भाषा का भी कोई ज्ञान नहीं होता।"
हर एक को अपनी भाषा को तरज़ीह देनी ही चाहिए, परन्तु इसके मायने ये भी नहीं है कि अन्य भाषाओं को हिकारत भरी निगाहों से देखा जाए। भारतेन्दु जी स्वयं बहुत सी भाषाओं का इल्म रखते थे। यदि, उर्दू, पंजाबी या अंग्रेज़ी बोलना या लिखना शुरू कर दूं, तो मैं हिंदू न रह कर मुसलमान, गोरा या सिक्ख हो जाता हूँ क्या? सोलहवीं शताब्दी के रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने कहा था - मैं ईश्वर से स्पैनिश में, महिलाओं से इतालवी में. पुरूषों से ह्रैंच में और अप्ने घोड़ों से जर्मन में बातें करता हूँ - अर्थात जितनी अधिक भाषाएं आप जानते हैं, उतना ही बेहतर आप अपने विचारों का संप्रेषण कर सकते हैं। मैने हिंदी भाषा के ऐसे हिमायती भी देखें हैं जो कह-कह कर नहीं थकते कि अंग्रेज़ी भाषा से गुलामी की बू आती है, लेकिन ख़ुद 'मे आई कम इन', 'बाय-बाय', और 'थैंक यू' जैसे अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करने में अपनी बड़ाई मानते हैं। वास्तव में भाषाएं बहनों की तरह होती हैं। वे कभी नहीं टकराती। टकराती तो भाषा के प्रति हमरी मानसिकता है।
अगर हम अपनी-अपनी भाषाओं के दायरे खींच ले, तो न तो भाषाओं का आदान-प्रदान होगा, न उनका विकास होगा और न ही हम एक दूसरे की संस्कृति से पूरी तरह वाकिफ़ हो पाएंगे। यदि सभी अपनी-अपनी भाषा का राग अलापने लगेंगे, तो भाषाओं का परस्पर मेल नहीं हो पाएगा। सोचिए अगर भाषाएं एक दूसरे से न मिलती, तो श्रीमदभगवद गीता को केवल हिंदु पढ़ पाते, कुरान मुसलमान ही पढ़ते, आदिग्रन्थ केवल सिक्ख जानता और बाइबल केवल ईसाईयों तक सीमित रहती, परन्तु इन पुस्तकों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध होने से विश्व के लोग इन्हें पढ़ पाते हैं।
हमारे देश की आज़ादी में भी कई भाषाओं का योगदान रहा है। राष्ट्रगीत ’वंदे मातरम’ और राष्ट्रगान ’जन गण मन’ हमें बांग्ला ने दिए और ’सारे जहां से अच्छा...’ इकबाल की उर्दू भाषा में लिखी गई देश प्रेम की ग़ज़ल है। अगर ’दिल्ली चलो’, 'करो या मरो' 'जय हिंद' जैसे नारे हिंदी के हैं, तो क्रांति का प्रतीक ’इंक़िलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा उर्दू ज़बान का है। टैगोर की ’गीतांजली’ को ब्यापक सम्मान अंग्रेज़ी में अनुवादित होने के उपरांत मिला। चाहे राम प्रसाद बिस्मल ने कहा - ’लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी’, फ़िर भी उनका उर्दू से बहुत लगाव था। उन्होंने बिस्मल को अपना तख़ल्लुस बनाया और कई वतन परस्ती से लवरेज़ तराने लिखे। उन्होंने क्रान्तिकारी बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखित उर्दू तराना ’सरफ़रोशी की तमन्न्ना आज हमारे दिल में है...’ को एक नारा बनाया जिसे हम आज भी गुनगुनाते हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और दुष्यंत कुमार की गज़लों में हिंदी व उर्दू जिस तरह से हमामेज़ हुई हैं, वह साहित्य को एक ख़ूबसूरत आयाम देता है। जहां हिंदी, उर्दू और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं ने देश की आज़ादी में अहम भूमिका निभाई, वहीं आधुनिक भारत के जनक राजाराम मोहन राय ने अंग्रेज़ी का इस्तमाल भारत पुनर्जागरण के लिए किया। उन्होंने इस भाषा को अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच सेतु स्थापित करने के लिए भी किया। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पंडित नेहरू. आर के नारायनन, राजा राव, किरन देसाई, अरुनधति रॉय, जैसे भारतीय लेखकों ने अंग्रेज़ी भाषा का इस्तमाल करके ऐसी साहित्यिक रचनाएं लिखी जिनसे विश्व में देश का नाम रोशन हुआ है।
किसी भी भाषा के विस्तार और विकास के लिए ज़रूरी है कि यह दूसरी भाषाओं के प्रति उदार रहे। जैसे हिंदी भाषा के ‘चपाती‘, ‘बिनदास‘ जैसे शब्दों के मुकाबिल दूसरी भाषा में नहीं मिलते, ठीक वैसे ही दूसरी ज़बान के कई अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिन के मुकाबिल हिंदी में नहीं जैसे उर्दू के ’इरशाद’ ’तख़लिया’ या और अंग्रेज़ी के स्पैम, (Spam) गुगली (Googly) जैसे शब्द। ज़बान के  अल्फ़ाज़ को हमामेज़ करने ही सलाहियत ही ज़बान को तरक्कीयाफ़दा बनाती है।
भाषा किसी की बांदी नहीं होती। इसे किसी खूंटे से नहीं बांधा जाना चाहिए अन्यथा यह ऐसे पिंजरे के पंछी की तरह हो जाती है जिसे ज़ीने के लिए दाना तो मिलता है, पर उसकी ऊड़ान कुंद रह जाती है। तेरहवीं शताब्दी इंग्लैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक रोजर बेकन ने कहा था - ज्ञान की चॊटी पर हम विभिन्न भाषाओं को जान कर पहुंच सकते हैं। तो आइए भाषाओं का प्रयोग हम जोड़ने के लिए करें, तोड़ने के लिए नहीं।


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