घर
में जब कोई मेहमान आता है, तो मा-बाप कहते है - बेटी चाए तो बना लाओ। बेटा चाहे पास बैठा हो या
टी.वी. पर क्रिकेट मैच देख रहा हो या मोबाइल फ़ोन पर गैम खेल रहा हो, उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा जाता। अगर उससे ऐसा कह भी दिया जाए तो,
छोटे लाल कहते हैं - ये तो दीदी करेगी क्योंकि वो लड़की है। माँ थकान
महसूस कर रही हो, तो वो कहती है - बेटी जरा बर्तन तो धो लो।
आज ज़रा चपाती तो बना लो। बेटी, जरा झाड़ू तो लगा। ये मत करो,
वो मत करो, इतनी देर कहाँ थी, ये मत पहनो, वो मत पहनो, तुम
लड़की हो। औरों के घर जाओगी, तो वे क्या कहेंगे? इन्हीं शब्दों के साथ शुरू होती है ज़्यादातर घरों की बेटियों की कहानी और
इन्हीं शब्दों से गढ़े हुए माहौल में वह पलती बड़ी होती है। बेटी से बहन, पत्नि और माँ बनते-बनते भेदभाव की दीवार पुख़्ता होती जाती है, ये मानसिकता मज़बूत होती जाती है और नारी इसे अपनी नियती समझ कर अपना
किरदार चाहे-अनचाहे निभाती जाती है। उसके जीवन के इस सफ़र में कहानी वही रहती है,
एक ऐसी कहानी जिसमें केवल पात्र बदलते रहते हैं, नाम बदलते रहते हैं, परन्तु घटनाएँ वही रहती है -
शोषण, बलात्कार, दहेज़, भ्रूण हत्या, अशिक्षा। जब निर्भया, गुड़िया जैसी दिल दहला देने वाली घटनाएँ होती हैं, तो
मैथिली शरण गुप्त की ये पंक्तियाँ अनायास ही याद हो आती है - अबला जीवन तेरी हाय
यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी।
आज
के आधुनिक युग में भी ऐसा क्यों? मैं ये तो नहीं कह रहा हूँ कि हमारे देश में नारी ने
तरक्की नहीं की है। दरअसल हमारा नारी समाज दो वर्गों में बंटा है - एक वर्ग में
सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी, किरन
देसाई, नीरजा भनोट, सुषमा स्वराज,
कल्पना चावला, किरन बेदी, सानिया मिर्ज़ा, पी वी सिंधू, दीपा
कर्माकर जैसी प्रगतिशील और सशक्त महिलाएँ हैं, जिन्होंने यही
सिद्ध किया है महिलाएँ अपने बलबूते अपने आप को बुलंदियों पर स्थापित कर सकती हैं।
ये किसी आरक्षण की मोहताज़ नहीं। परन्तु हमारे नारी समाज का एक बहुत बडा वर्ग ऐसी
महिलाओं का है, जो कोने में दुबक कर एक शून्य की जिन्दगी जी
रही हैं। वे पुरूष प्रधान समाज की रूढिवादी सोच को या तो अपना भाग्य मान बैठी हैं
या फिर धर्म मान कर रिश्ते निभा रही हैं, पति की सेवा कर रही
हैं और पुरूष की ज़्यादती को सहन कर रही हैं। ज़ुल्म होने पर भी शिकायत नहीं करतीं,
अगर करती हैं, तो उनकी आवाज़ को दबा दिया दिया
जाता है। वे पुरूष की ताड़ना और प्रताड़ना का शिकार बन जाती हैं। ऐसी कई घटनाएँ होती
हैं, जो या तो दर्ज़ नहीं होती या नज़र में नहीं आ पाती या फ़िर
अख़बारों की सुर्खियाँ नहीं बन पाती। यही वह वर्ग है जिसमें नारी शून्य की ज़िंदगी
गुज़ार रही है। इस शून्य से बाहर कॆसे लाया जाए? यह एक यक्ष
प्रश्न है।
वास्तव
में नारी सशक्तिकरण का मामला नारी और पुरूष दोनों की मानसिकता से जुड़ा हुआ सवाल
है। प्राचीन काल से पितृसत्तात्मक समाज में कायदे कानून पुरूष ही बनाता आया है।
उसे जब-जब जैसा सुविधाजनक लगा, उसने तब-तब नारी को उस सोच में ढाल दिया। कभी शास्त्रों
में उसने कहा - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:, उसने कहा- ढोर, गँवार, शूद्र,
पशु और नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी, उसने कहा - नारी तुम केवल श्रद्धा हो...। अर्थात पुरूष ने अपनी सुविधा के
अनुसार नारी को परिभाषित करने का प्रयास किया। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष नारी
पर विजय चाहता है और नारी समर्पित होती चली जाती है, पुरुष
उसे लूटना चाहता है और नारी लुटती चली जाती है। अग्नि में बैठकर अपने आपको पवित्र
प्रमाणित करने वाली स्वच्छ सीता पितृसत्तात्मक समाज में नारी वेदना की परिचायक है।
इस
पितृसत्तात्मक व्यवस्था से उगने वाली मनोवृति व रूढ़िता से पुरूष को बाहर आना होगा।
जरा सोचिए आप ने अपने-अपने घरों में अपनी माँ, पत्नी, बहिन और बेटी को
कितनी भागीदारी, आज़ादी व अधिकार दिए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं
कि आप गलियों मैं नारी सम्मान का ढोल पीटते हैं और अपने घर में उन पर अपने मर्द
होंने की धौंस जमाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि भाषणों में तो
आप नारी को शक्ति का रूप मानते हैं, परन्तु मन ही मन उसे
अबला समझते हैं? आप उन्हें घर के सामाजिक व आर्थिक निर्णय
लेने में कितनी भागीदारी देते हैं? कहीं आप बेटा और बेटी को
शिक्षा दिलाने के मामले में बेटी के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं? ये सवाल अपने आप से कीजिए। अगर वाकई आप अपने घरों में भी नारी का सम्मान
कर पाते हैं और उन्हें बराबरी का स्थान देते हैं, तो महिला
आरक्षण विधेयक व घरेलु हिंसा निरोधक जैसे कानून की आवश्यकता ही नहीं, न ही नारी को सड़क पर नारे लगाने की जरूरत है। वास्तव में पुरुष को ज़हनी
तौर से नारी को उसका स्थान देना होगा।
नारी
उत्थान के लिए नारी को स्वयं भी सचेत होना होगा। उसे हाथ पसार कर नहीं, बल्कि अपनी शक्ति को
स्वयं पहचान कर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। महज़ आरक्षण व कानून के सहारे बैठ कर नारी
सशक्त नहीं हो सकती। वास्तव में नारी को स्वयं को अंधयारे से बाहर लाना होगा। उसे
सुशिक्षित हो कर खुद को बौद्धिक व आर्थिक स्तर पर पुरूष के समकक्ष खड़ा होना होगा।
ऐसा नहीं है कि आज की नारी को मौका नहीं मिल रहा। देखना होगा की नारी को यह सब कुछ
मिलने के बाद भी क्या वह अपने अधिकरों का प्रयोग करने में आज़ाद है। उदाहरत:
स्थानीय निकायों में कितनी ही महिलाएँ चुन कर आती हैं, परन्तु
वे या तो निष्क्रीय हो जाती हैं या उनकी डोर पति के हाथ में ही रहती है।
कहते
हैं जिस घर में बहू बेटियों की इज़्ज़त नहीं, उस घर में बरकत नहीं होती। नारी किसी भी समाज
का आधा हिस्सा होता है और पुरूष का आधा अंग। इस आधे हिस्से और अंग के बगैर न कोई
व्यक्ति फल फूल सकता है और न ही समाज उन्नति कर सकता है। आज के बदलते परिवेश में
नारी ताड़न की अधिकारी नहीं। य़ह भी आवश्यक नहीं कि वह हमेशा श्रद्धा बन कर पुरूष
के आंगन में पीयूष स्रोत सी बहती रहे। अहम बात है कि पुरुष को नारी की आज़ादी को
स्वीकारना होगा। कवि जयशंकर प्रसाद ने हमें सावधान करते हुए कहा है - जिसे तुम
समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल। ईश का वो रहस्य वरदान, कभी मत उसको जाओ भूल।
जगत की ज्वालाओं का मूल। ईश का वो रहस्य वरदान, कभी मत उसको जाओ भूल।
नारी
को भी अपने हिस्से की धूप चाहिए, उसे भी अपने हिस्से का आसमां चाहिए, उसे भी अपने हिस्से का जहाँ चाहिए, जहाँ वह भी पुरुष
की तरह स्वछन्द विचारों की उडान भर सके। आखिर जिस नारी के आँचल में संसार के लिए
दूध है, संसार उस नारी की आंखों में पानी क्यों दे जाता है?
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