Thursday, 17 August 2017

एहसास

तूने कॉलेज की.खिड़की पर फेंका है जो पत्थर \
और चूर चूर हो गया है काँच
ये बिखरे टुकड़े नहीं काँच के बल्कि बिखरे पड़े हैं सपने
जो तुम्हारे लिए देखे हैं माँ बाप ने
कि  बेटा पढ़ेगा लिखेगा कमाएगा खूब नाम
ये तूने  घोंप डाला है  जो किसी को खंज़र
और टपक पड़े  हैं सड़क पर लहू के कतरे
ये कतरे नहीं हैं कतरे केवल लहू के
बल्कि दास्तां बयां करते हैं क़त्ल हुए उन सपनों की
तुमाहरी उंगलियों के बीच शान से कसी वो सिगरेट और
हर काश के साथ निकलते वो धुंए उन लच्छों
में है बेबस मां की सिसकियां और बाप की थमती साँसे

तुम्हारा पत्थर फैंकना भी हो सकता था जायज़
मगर तभी अगर वो पत्थर तुमहारा होता
पर अफसोस! वो पत्थर तुम्हारा न था
तुम्हारा तो सिर्फ हाथ था
हाथ तुम्हारा था, पत्थर उनका था
हाथ तुम्हारा था, खंजर उनका था
वो सिगरेट, वो धुंआ  सब उनका था

एक दिन आएगा जब तुम छताओगे
तब तुम्हें एहसास होगा
काश! मेरे हाथ में पत्थर न होता
मेरे हाथ में कलम होती
मेरे हाथ में कागज़ होता
तो मैं एक नक्शा बनाता
नक्शा बनाता एक हिंदोस्तान का
पर तब शायद बहुत देर हो चुकी होगी
जब तुम्हें एहसास होगा -
क्या होता है माँ बाप के सपनों का मर जाना
और क्या  होता है माँ बाप के होंठों से हंसी का चले जाना



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