Sunday, 7 April 2019

रोटी

सड़क के एक खुले मोड़ पर
वह धोता मैला
चमकाता
मारता बार बार पानी
घिसता
गाड़ी को चमकाता
नई कर दूंगा साहब
कहता
शायद कुछ बख्शीश वो चाहता
बाकि सब जाता है
मालिक की जेब में
जो दे देता है उसे
दो वक्त की रोटी
बच्चों के उतरे कपड़े
छोटा सा कमरा
मिल जाती उसे
चंद सांसे
जीने के लिए
मिल जाती है उसको रोटी
स्कूल छोड़ आया
जौनपुर से भाग आया
और भी है दो बहिने
बाप की मज़दूरी से
नहीं हो पाती है पूरी रोटी
स्कूल भला खाक वो जाता
किताबों से पहले चाहिए रोटी
हिमाचल अच्छा है बाबू
मुस्कुराता
मिल जाती है यहां रोटी
लो चमक गई बाबू गाड़ी
बिल्कुल नई लगे है
खुश हो कर कहता
अगकी गाड़ी का नंबर आता
फ़िर धोता मैला
चमकाता
मारता बार बार पानी
घिसता
गाड़ी को चमकाता
दिल मेरा करुणा से भर आता
दो सौ का नोट निकाल
मालिक को देता
और पचास का नोट
उसको थमा देता
वह मुस्कुराता
बाय बाय टाटा करता
वह खुश है
नहीं जा पाता वो स्कूल
तो क्या
मिल जाती है उसको
रोटी
मिल जाता है
कपड़ा और मकान

मैं सोचता
इस देश में
मंदिर है मस्ज़िद है
हिंदू है मुसलमान है
राम है रहीम है
गाए है बकरा है
ईद है दिवाली है
हर हर महादेव है
अल्ला हू अकबर है
कश्मीर है
धारा 370 है
भाषण हैं
जुमले हैं
कागज़ों में सपने हैं
पर सपनों से
जुमलों से
कहां पेट पल पल पाते हैं
सरकारों के एजैंडे में क्या क्या नहीं
पर नहीं हैं उसके लिए रोटी
मेरे एजैंडे में भी है
उसके लिए थोड़ी सी बख्शीश
एक झूटी तसल्ली
एक ढोंग
जिससे मैं खुद को
इंसान कहलवाना चाहता हूं

मैं सीधा लिखता हूं

तल्ख हो कर वो पूछते हैं मुझ से
क्यों लिखते हो तुम सीधा
तुम भी लिखो कुछ टेढ़ा
जैसा और भी लिखते हैं
मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
झुका हुआ कुछ उस तरफ़

तल्खी से मैं भी कह देता हूं उन से
मैं सीधा मेरी कलम सीधी
आदमी टेढ़े से हो गया सीधा
क्यों लिखूं मैं फ़िर टेढ़ा
मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
झुका हुआ कुछ उस तरफ़

गुरेज़ क्यों मैं करूं सीधा लिखने से
फ़िर फ़िर कर लिखता हूं
पर मिली है तासीर कुछ ऐसी
कि बन पड़ता है सब सीधा
न मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
न झुका हुआ कुछ उस तरफ़

औरों से नहीं, कहता हूं खुद ही से
लिखो ऐसा कि तीर सा लगे
करे कोई आह या कोई वाह
कि हां क्या खूब लिखा है
न मुड़ा हुआ कुछ इस तरफ़
न झुका हुआ कुछ उस तरफ़

घट जाता है दाम कलम का बिकने से
अड़ जाए जो न बिकने पर
तो बढ़ जाता है दाम इसका
बांदी नहीं ये कलम किसी की
न मुड़ेगी कभी इस तरफ़
न झुकेगी कभी उस तरफ़

न साहिब से, न लेना कुछ मुसाहिब से
बिके हुए हैं निज़ाम
खरीदे हुए हैं मसनद
कलम है ये ‘बाली‘ की
न खरीद पाएगा कोई इस तरफ़
न बिकेगी कभी ये उस तरफ़


घर

कोई दीवार चिनता है
कोई छत बींदता है
रेत, बजरी, लक्कड़ी,
पत्थर, मिल जाए
तो मकान बनता है
पर घर नहीं बनता है

स्नेह की हो नींव
प्यार की ईंटें
संवेदनाओं की गोंद
रिश्ते का हो ताना-बाना
तो घर बनता है

मा की हो लोरियां
नाना-नानी की कहानियां
दादी का दुलार
दादा जी से हो ठिठोली
तो घर बनता है

पिता जी की डांट-फटकार
मां का आंचल
नौक झौंक में अपनापन
बच्चॊ के साथ पलते हो संस्कार
तो घर बनता है

नहीं सिकुडति हो भौंएं मेहमान आने पर
बूढ़े मा बाप की हो कदर
बुज़ुर्गों का आशीर्वाद
बातों के साथ बनता हो चरित्र
तो घर बनता है

ठनती हो सास-बहू की
पर फ़िर हो बनती
अटूट प्रेम का धागा
झगड़ते हो भाई-बहन
पर फिर मिलते हो गले
तो घर बनता है

उंची रंगदार इमारतें
दीवरों पर नक्ककाशी
नरम गलीचे, महंगे बर्तन,
गद्देदार कुर्सियां
इनसे मकान बनता है
मकान बनता है
पर घर नहीं बनता है
घर की चीज़ों से नहीं
घरवालों से घर बनता है   

पिता जी का लोइया

 किसी को कुछ चाहिए और किसी को कुछ चाहिए
आज भी पिता जी से सबको कुछ न कुछ चाहिए
छोटे के फटे जूते उसे रिबॉक के नए अभी चाहिए
फटी है बड़े की भी जींस उसे डेनिम की ही चाहिए
बिटिया हो गई बड़ी उसे अब नथ सोने की चाहिए
पुराना हुआ पत्नी का सूट उसे भी अब गर्म चाहिए
जाड़े में खुद पिता जी को भी लोइया नया चाहिए
एक पिता जी की कमाई से देखो क्या क्या चाहिए
खरीद लाए पिताजी वो सब कुछ जो जो था चाहिए
सब खुश हैं मिल गया जो सभी को जो था चाहिए
खुश हो ओढ़ लेते सब अब पिताजी का नया लोइया
दूर खड़े थे पिता जी जैसे उनके लिए नहीं है लोइया
हिसाब कर रहे थे कितने की आई चीजें और लोइया
कुछ एडवांस कुछ कर्ज से आए थे सब और लोइया
बेखबर बच्चे कहते खूब गर्म है पिता जी का लोइया
जैसे पिता जी का लोइया बन जाता है सबका लोइया
ऐसे ही पिता जी को भी बबना होता है सबका लोइया

ज़िंदगी का सफ़र


देख जलती चिता को ख्याल दिल में वही पुराना आया
मंज़िल ज़िंदगी की मौत के सिवा कुछ और है ही नहीं
सफर ज़िन्दगी का किसी भी रास्ते से तय कर लो तुम
पर रास्ता कोई मौत के सिवा कहीं और पहुंचता ही नहीं
लाख इंसा ने कर लिए जतन खोज लिए नए कई रास्ते
हासिल क्या जब रास्ता कोई और खुदा ने छोड़ा ही नहीं
अज़ल से सबको पता है आखिरी पड़ाव बस है एक यही
पर दिल है कि ज़िंदा रहने की जिद से मानता ही नहीं
मौत आनी है एक दिन और आ कर ही रहेगी एक दिन
कब कैसे कहां ये खुदा के सिवा किसी को पता ही नहीं
जन्म से मौत तक का है सफ़र बस इतनी सी है ज़िंदगी
जि गया जो ये सफ़र ज़िंदा है वो वर्ना मौत ही है ज़िंदगी

फ़ैसला

कहां इनाम का अब हुनर से फैसला होता है
बल्कि हुनर का अब इनाम से फैसला होता है
मक्कारों के फरेब से चलती है अब ये दुनिया
ज़हीनों के साथ अब धोखे से फैसला होता है
साज़िशों से ही जलते-बुझते हैं ज़िंदगी के दीए
कहां हवाओं की मर्ज़ी से अब फैसला होता है
मुफ़लिस ही रखते हैं इंसानी रिश्तों को ज़िंदा
पैसे वालों का तो बस पैसों से फैसला होता है
अपने ही अश्कों से मिलता है दिल को करार
कहां मुंसिफ़ से अब वफ़ा का फ़ैसला होता है
कौन सुनता है अकेले सच्च की आवाज़ को
काफिले के शोर से आयद हर फैसला होता है
परों से ही कहां सदा हो पाती है ऊंची परवाज़
जुर्रत से भी उड़ान का अहम फैसला होता है
न कर अब तू फिक्र और फैसले की 'बाली'
तेरी ज़िन्दगी का फैसला तेरे फैसले से होता है

वो कौन है?

जाने कौन
रोज़ चुपके से जगा जाता है
सूरज को
भर जाता है जग में उजाला
दे जाता है तपिश
और फ़िर दूर क्षितिज पर
तलहटी में उतर जाता है
डूब जात हैअंधेरे में
एक बार फिर सबकुछ
जाने कहाँ से उमड़ आते हैं
असंख्य टिमटिमाते तारे
शरारत करने को लालायित जैसे हों
नटखट बच्चे
नमूंदार होता है
पहरेदार सा फिर
अम्बर में चंचल चंदा
अनंत किरणों से अपनी जो
बुनता है सफ़ेद चादर
ओढ़नी की तरह जो बिछ जाती है
जल थल में
जाने कौन खींच जाता है
पानी को नभ में और
भर देता है बूंदों को
बादलों की सुराहियों में
उंडेल देता है इन्हें वापिस
धरती पर
उभर आता है शून्य में
सतरंगी इंद्रधनुष
चल निकलते है झरने
लिए मधुर संगीत
अलसाती धरती से
अंकुरित हो फ़ूट पड़्ते हैं
सुषुप्त बीज
और निकल आती हैं
नन्हीं कोंपलें
पीले सरसों से
लहलहा उठते हैं खेत
जंगल मैदान घाटियां पहाड़
सब हो जाते हैं हरे भरे
लद जाती तब धरा
रंग बिरंगे खिले फूलों से
महका जाता है तब कौन
फ़िज़ाओं को खुशबुओं से
परिंदों को दे जाता है कोई
हुनर घरोंदे बनाने का
पर और परों से उड़ना
सीखा जाता है कौन
जाने कौन दे जाता है
पंछियों को सुर
आखिर कौन छुप कर चलता है
ये सब चालें
खेलता है कौन हमसे
धूप-छाँव का ये खेल
आखिर कौन हम से करता है
ये अठखेलियां