चंद रोज़ कब्ल एक शाम टहलते हुए
अपने घर के पास वाले पार्क में कुछ बच्चों को खेलते हुए देखा। मैने पूछा:
"अरे बच्चो! कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?" बच्चे उछलते-कूदते हुए बोले:
"अंकल आठवीं में?" "अरे, कल से तो तुम्हारी परीक्षाएं हैं और तुम
बेपरवाह हो खेल रहे हो?" मैने हैराने से पूछा। एक बच्चा बोला: "तो क्या
हुआ, अंकल जी? पास तो होना ही है।" एक और बच्चा बोला: "अब मौज ही मौज
है। पढ़ो चाहे न पढ़ो, पास तो हो ही जाएंगे! क्या आप को मालूं नहीं कि ये गुरु जी
अब हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। सब को पास करना ही पड़ता है।" अब तो हमारे हाथ
में लड्डू ही लड्डू हैं। बेचारे न समझ भोले भाले बच्चे!
वहां से
थोड़ा आगे निकला तो चाए पीने की इच्छा हुई। चाए की दुकान पर कुछ अध्यापक चाए की
चुस्कियों के साथ चुटकी भी ले रहे थे: "अब
पढ़ने-पढ़ाने का स्यापा भी जाता रहा। किसे क्या ग्रेड देना है, ये हमारी
मर्जी! हम पढ़ाएं या न, हमारी मर्जी। सरकार भी क्या गजब का काम करती है। अब तो
स्कूल जाओ, हाज़री लगाओ और चोखी पगार लो। अगर रिजल्ट का स्यापा रह ही गया, तो नक़ल
देना न देना तो हमारे हाथ में है। ड्यूटी भी हम देंगे और फ्लाईंग ड्यूटी भी हमारे
भाई ही करेंगे। कौन पूछता है कि परीक्षा हाँल में क्या हो रहा है।"
चाए की
दुकान से बाहर निकल कर वापिस घर की तरफ़ आ रहा था, तो देखा चौराहे पर दो-तीन
अभिभावक आपस में बातें कर रहे थे। एक अभिभावक कह रहा था: "अरे कल मेरे पपपू
की परीक्षा है। उसे पूरा विश्वास है कि पास हो जाएगा। वो कह रहा था कि कोई CCE आयी
है स्कूल है जो फ़ैल नहीं होने देती। चलो अच्छा हुआ पप्पू का साल बच जाएगा।"
दूसरा अभिभावक बोला: "अरे मेरा पप्पू भी पास हो जाएगा।" तीसरा अभिभावक
थोड़ा सोच कर बोला: "अरे भाई, पप्पू तो मेरा भी पास हो जाएगा, पर मैं सोच रहा
हूँ कि ऐसे पप्पुओं का क्या होगा? कहीं वे ज़िंदगी भर पप्पु ही न रह जाए!"
उसकी बात सुन कर अन्य दोनों अभिभावक भी संज़ीदा हो गए। चिंता की लकीरें उनके चेहरों
पर साफ़ झलक रहीं थी। बेचारे तमाशबीन और मज़बूर माता- पिता!
घर पहुंचा
तो एफ़ एम रेडियो पर शिक्षा अधिकारी महोदय को कहते हुए सुना: "शिक्षा का स्तर
जरूर बढ़ेगा क्योंकि सरकार ऐसा कह रही है। हालाँकि आँकड़े कहते कि स्तर घटा है,
लेकिन शिक्षाविद व शोधकर्ता कह रहे हैं कि अब ज़रूर बढ़ेगा।" बेचारा सरकारी
अधिकारी सरकारी नीतियों की पैरवी तो करनी ही पड़ेगी। उधर मंत्री जी टरटर्रा रहे थे:
"अरे जब पप्पू भी खुश है, पप्पू के पापा भी खुश हैं, तो स्तर ज़रूर बढ़ेगा।
सरकार इतना पैसा लगा रही है तो स्तर तो बढ़ेगा ही।" बेचारे होशियार नसमझ नेता।
इन्हें क्या फ़र्क पड़ता है।
शिक्षा
की नई थ्योरी काग़ज़ों पर तो बढ़िया लगी, पर यथार्थ कुछ और ही निकला। ऐसे में अध्यापक
ये तय नहीं कर पा रहा है कि वो अध्यापक है या फ़िर आंकड़े इकट्ठा करने वाला एक
बाबू। शिक्षा की गुणवता का आलम ये है कि आज 10वीं,10+1 और 10+2 का बहुत से
विद्यार्थि हिंदी का एक वाक्य तक न शुद्ध बोल पाता है और न शुद्ध लिख पाता। ये
हमारी मातृ ज़बान हिन्दी का आलम है, और तमन्ना अंग्रेज़ी में कमाल करने की है। इस
लेख को लिखते लिखते दिल्ली से पैगाम आया है कि अब नई शिक्षा नीति आएगी, जो मर्ज़ की
दवा साबित होगी। क्यों नही? उम्मीद पर दुनियाँ टिकी है, जनाब!